2019 के चुनाव में क्या होगी क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका?
देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को अपना सियासी किला मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग की दरकार है. दोनों दलों को पता है कि बिना क्षेत्रीय पार्टियों के उनका बेड़ा पार नहीं होगा, इसलिए 45 पार्टियों वाला एनडीए भी नए साथियों की तलाश में है और 14 पार्टियों वाला यूपीए भी. कुछ पार्टियां थर्ड फ्रंट या फेडरल फ्रंट जैसा कोई गठजोड़ बनाना चाहती हैं जो गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी हो. उन्हें दोनों से दिक्कत है. इसके बावजूद बीजेपी और कांग्रेस के लिए इन्हीं पार्टियों से उम्मीद ज्यादा है. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कौन पार्टी किसके लिए खतरा बनेगी और कौन सरकार बनाने में मददगार साबित होगी.
इस समय सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ सपा, बसपा, टीडीपी, टीआरएस, टीएमसी, आरजेडी और आरएलडी जैसी पार्टियां एकजुट हो रही हैं. लोगों को इनका झुकाव कांग्रेस की तरफ लगता है. लेकिन रीजनल पार्टियों के नेताओं की इच्छा ये है कि बीजेपी हार जाए, लेकिन कांग्रेस मजबूत भी न हो. इसके पीछे इन पार्टियों के आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा है. 2014 के चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियों ने 342 सीटों पर कब्जा जमाया था, जबकि क्षेत्रीय दलों ने 203 सीट पर. मोदी लहर के बावजूद रीजनल पार्टियों ने अपना दमखम दिखाया था.
क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत
क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के साथ जुड़ने का नफा-नुकसान देख लिया है. सपा, बसपा, आरजेडी, शिवसेना, टीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, डीएमके और इनेलो जैसे कई क्षेत्रीय दल अपना सियासी वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. बीजेडी, टीएमसी, एआईएडीएमके, टीआरएस, टीडीपी और आम आदमी पार्टी जैसे जो क्षेत्रीय दल इस वक्त सत्ता सुख भोग रहे हैं वो भी इस जद्दोजहद में लगे हुए हैं कि कैसे कांग्रेस और बीजेपी दोनों से पार पाते हुए वापसी की जाए. उन्हें इन बड़ी पार्टियों के साथ रहने पर अपनी जमीन खिसकने का डर सता रहा है.
बीजेपी-कांग्रेस दोनों को क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत!
यूपी में बीजेपी की सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर आए दिन सरकार पर निशाना साधते रहते हैं. लेकिन बीजेपी उन्हें बर्दाश्त कर रही है. हालांकि जब राजभर से ये पूछा गया कि 2019 के चुनाव में आप किसके साथ जाएंगे? तो जवाब में उन्होंने कहा "हम बीजेपी के साथ लड़ेंगे. किसी और के साथ नहीं."
किसके लिए चुनौती हैं क्षेत्रीय पार्टियां
शिवसेना इसीलिए लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर नहीं लड़ना चाहती. उसने अकेले मैदान में उतरने का एलान किया है. कांग्रेस के साथ कोई रीजनल पार्टी जुड़ने के लिए आसानी से तैयार नहीं दिख रही और बीजेपी से उसके पुराने साथियों की नाराजगी बढ़ रही है. क्षेत्रीय पार्टियां अपनी स्थानीय पकड़ की वजह से बीजेपी और कांग्रेस दोनों के सामने ऐसी चुनौती बनकर उभरी हैं, कि दोनों उनके साथ के बिना सत्ता तक नहीं पहुंच सकतीं. ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों की क्या भूमिका होगी, इस पर सभी की नजरें लगी हुई हैं?
ये है राष्ट्रीय पार्टियों की ताकत
तो क्या मान लिया जाए कि 2019 वाकई क्षेत्रीय दलों के उभार का साल होगा. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने दावा किया है कि 2019 में बीजेपी खत्म होने वाली है. बीजेपी क्षेत्रीय पार्टियों से मुकाबला नहीं कर सकती. वैसे बीजेपी की यह कोशिश रहेगी कि 2019 के आम चुनाव में मुकाबला नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच हो जाए. क्योंकि इसके पीछे सोची-समझी रणनीति है. भाजपा में ही कुछ लोग यह मानते हैं कि जब तक कांग्रेस के पास राहुल गांधी जैसा नेतृत्व रहेगा, तब तक हमारे लिए कांग्रेस का मुकाबला करना बेहद आसान रहेगा. राजनीति के कई जानकार नरेंद्र मोदी की इतनी बड़ी छवि के लिए राजनीतिक तौर पर उनके सामने खड़े राहुल गांधी की कमजोर छवि को जिम्मेदार बताते हैं.
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'24 अकबर रोड' नामक किताब लिखने वाले रशीद किदवई कहते हैं "क्षेत्रीय पार्टियों का जन्म कांग्रेस से ही हुआ है इसलिए वो नहीं चाहतीं कि कांग्रेस आगे बढ़े. कांग्रेस मजबूत होगी तो वो कमजोर होंगी. अभी क्षेत्रीय पार्टियां ऐसा माहौल बनाना चाहती हैं कि कांग्रेस मजबूरी में उनका समर्थन कर दे. वो आगे की जगह हाशिए पर रहे. उन्हें राहुल या नरेंद्र मोदी की ताजपोशी करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. उनका स्वार्थ अपना किला मजबूत करने का है."
बसपा-सपा गठबंधन ने बढ़ाई बेचैनी!
कांग्रेस, बीजेपी को कमजोर क्यों रखना चाहते हैं क्षेत्रीय दल?
क्षेत्रीय पार्टियां कभी नहीं चाहतीं कि कांग्रेस या बीजेपी आगे बढ़ें. क्योंकि कांग्रेस और बीजेपी मजबूत होंगे तो वो कमजोर होंगी. क्षेत्रीय दलों की ताजपोशी कमजोर कांग्रेस और कमजोर बीजेपी ही कर सकते हैं. इसलिए क्षेत्रीय दल अपना वजूद बचाने के साथ-साथ इस कोशिश में लगे हुए हैं कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों मजबूत न होने पाएं.
राहुल गांधी यह एलान कर चुके हैं कि ‘उनकी पार्टी सभी राज्यों के प्रभावशाली क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर काम करने की इच्छा रखती है. वह इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं.’ फिर भी उनके साथ जुड़ने से कई दल परहेज कर रहे हैं.
बड़े क्षेत्रीय दलों की कोशिश है कि 2019 के आम चुनाव से पहले एक ऐसा मोर्चा खड़ा किया जाए जो गैर-कांग्रेसी हो और बीजेपी के खिलाफ एकजुट रहे. ऐसा मोर्चा हो जिसमें बीजेपी विरोधी क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने राज्यों में अपना जनाधार और सरकार बचा और बना लें.
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दिल्ली यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर सुबोध कुमार कहते हैं “क्षेत्रीय दलों का उदय तो साठ के दशक में ही शुरू हो गया था. लगातार उनका कद और उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ रही हैं. 1989 के बाद केंद्र में जो सरकारें बनी हैं उसमें क्षेत्रीय पार्टियों का रोल है. बीजेपी ने जो 2014 का आम चुनाव जीता उसमें छोटी पार्टियों से प्रीपोल अलायंस की बड़ी भूमिका थी. आने वाले चुनाव में कोई भी पार्टी बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के नहीं आ सकती. राष्ट्रीय पार्टियों का वोट शेयर कम हो रहा है. यह ताकत रीजनल पार्टियों को पता है."
रीजनल पार्टियों का उदय
शिरोमणि अकाली दल और जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस जैसी कुछ पार्टियां ही आजादी से पहले की बनी हैं. बाकी 1947 के बाद अस्तित्व में आईं. यहां क्षेत्रीय दलों का उभार 1966 के बाद ज्यादा हुआ था, जब कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ने लगी थी. कांग्रेस क्षेत्रीय और जातीय हितों को नहीं साध पाई तो नई-नई पार्टियों का उदय होने लगा. आज भी तमाम क्षेत्रीय दल अपने राज्य और वर्ग विशेष को मुद्दा बनाकर आगे बढ़ रहे हैं.
बीजेपी-कांग्रेस दोनों के लिए खतरनाक है क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत! (File)
क्या कांग्रेस चूक गई?
दलित और मुस्लिम कांग्रेस के कोर वोटर रहे हैं. लेकिन अब आरोप लग रहा है कि कांग्रेस मुस्लिमों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने में सफल नहीं हो सकी. असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) का उभार इसका नतीजा माना जा सकता है. आरोप है कि कांग्रेस दलित, ओबीसी हितों की रक्षा नहीं कर पाई इसलिए बसपा, सपा, एलजेपी जैसी पार्टियों का उभार हुआ.
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अचानक क्यों मुखर हो गए एनडीए के दलित लीडर?
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Tags: BJP, Congress, Regional parties in India
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