2019 की 'जंग' के लिए धीरे-धीरे मिट रहे फासले, बन रही बीजेपी की टीम B
बीजेपी को फिलहाल नई संभावनाएं देखने की जरूरत नहीं है. क्योंकि, बीजेपी और एनडीए के सहयोगी दलों के बीच धीरे-धीरे ही सही फ ...अधिक पढ़ें
- News18Hindi
- Last Updated :
राज्यसभा में उप-सभापति के चुनाव के बाद राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं. जिस तरह से उप-सभापति के लिए हुई वोटिंग में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के सहयोगी दल आपसी मतभेद को भुलाकर एक साथ आए और एनडीए केंडिडेट हरिवंश नारायण सिंह को समर्थन दिया, उसे आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र एनडीए के लिए 'गुड न्यूज़' माना जा रहा है. बदलते राजनीतिक समीकरण राष्ट्रीय दलों के लिए भी आगे जाकर फायदेमंद साबित होने वाले हैं.
संभलकर बोलें! हेमा मालिनी, संगीत सोम जैसे नेताओं को अमित शाह की खरी-खरी
ये राजनीतिक समीकरण एनडीए का नेतृत्व कर रही बीजेपी के भी पक्ष में हैं. बीजेपी को यह तय करने में मदद मिल रही है कि उसे मौजूदा घटक दलों के साथ गठबंधन को बरकरार रखना चाहिए या फिर नई संभावनाएं देखनी चाहिए. वैसा देखा जाए, तो बीजेपी को फिलहाल नई संभावनाएं देखने की जरूरत नहीं है. क्योंकि, बीजेपी और एनडीए के सहयोगी दलों के बीच धीरे-धीरे ही सही फासले कम हो रहे हैं. आने वाले चुनावों के मद्देनज़र एनडीए के घटक दल आपसी मनमुटाव को भुलाकर एकजुट होते दिख रहे हैं. बीजेपी से इतर बीजेपी की टीम 'बी' बन रही है.
राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ क्षेत्रीय राजनीति में भी यह चीज़ देखी जा सकती है. राज्यों में एक-दूसरे की विरोधी पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे की दोस्त बनने की इच्छुक है. क्योंकि, इस साल के आखिर तक मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं और सभी पार्टियों को राजनीतिक फायदा चाहिए.
2019 से पहले VVPAT मशीनों को पुख्ता करने की कवायद में जुटा चुनाव आयोग
ऐसे बन रही बीजेपी की टीम 'बी'
तीन क्षेत्रीय पार्टियां बीजू जनता दल (BJD), तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) और वाईएसआर कांग्रेस (YSR) राजनीतिक परिपेक्ष्य में बीजेपी के लिए सशक्त सहयोगी दल बनकर उभर रहे हैं. अगर 2019 के चुनाव में चीजें बीजेपी के पक्ष में नहीं रहीं और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए 273 सीटें जीतने में नाकाम रही, तो यही वो तीन पार्टियां हैं, जो भगवा पार्टी को केंद्र में वापस ला सकती है.राज्यसभा के उप-सभापति चुनाव में इसकी एक झलक देखने को भी मिल चुकी है. ये दल एनडीए से बाहर हैं, लेकिन फिर भी इन्होंने एनडीए कैंडिडेट के समर्थन में वोट किया था.
आंध्र प्रदेश की राजनीति को अगर देखें, तो टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस एक ही फ्रंट में साथ नहीं रह सकती. लेकिन इन दोनों पार्टियों की अपनी मजबूरियां भी हैं. टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस बीजेपी के साथ प्री-पोल अलायंस (चुनाव से पहले गठबंधन) नहीं कर सकती, क्योंकि संभव है कि उनके इस कदम से आंध्र और तेलंगाना का अलसंख्यक वोट प्रभावित हो. बता दें कि अगले साल लोकसभा चुनाव के साथ ही अप्रैल-मई में ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी होने हैं.
शिवसेना दोस्त है या दुश्मन?
बीजेपी से नाखुश और नाराज़ शिवसेना को दोस्त कहा जाए या दुश्मन ये एक बहस का विषय है. पहले शिवसेना विपक्ष की ओर से मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग से दूर रहकर केंद्र और महाराष्ट्र में पावर शेयरिंग को लेकर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को चुनौती देती है. लेकिन, बाद में अपनी रणनीति बदलते हुए राज्यसभा उप-सभापति के लिए एनडीए कैंडिडेट के पक्ष में वोट करती है. असल में शिवसेना को भी अच्छे से मालूम है कि ऐसे वक्त में जब चुनाव होने में कुछ महीने ही बचे हैं, बीजेपी नेतृत्व से ब्रेक-अप करना अक्लमंदी का काम तो नहीं है.
शिवसेना के एक नेता कहते हैं, 'मराठा आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र जल रहा है. ऐसे में ब्रेक-अप का ख्याल छोड़कर बीजेपी-शिवसेना को ये जानने की कोशिश करनी चाहिए कि विरोधी कांग्रेस-एनसीपी की चुनावी चाल क्या है.'
बेशक उद्धव ठाकरे ने ये ऐलान कर चुके हों कि शिवसेना अगला लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेगी, लेकिन आगे हालात बिगड़े और जरूरत पड़ी तो ठाकरे पार्टी के पक्ष में अपना स्टैंड बदल भी सकते हैं.
आप और केजरीवाल का क्या?
दिल्ली की आम आदमी पार्टी (AAP) और इसके संयोजक अरविंद केजरीवाल आने वाले चुनाव में फिलहाल 'एकला चोलो' (अकेले चलो) की रणनीति पर चल रहे हैं. क्योंकि, केजरीवाल को इसक बात का एहसास हो गया है कि उनके लिए न तो एनडीए में जगह है और न ही एंटी-बीजेपी फ्रंट में.
अब बात तृणमूल कांग्रेस और नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी की. टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी और एनसीपी चीफ शरद पवार आप और केजरीवाल के लिए सॉफ्ट कॉर्नर (सहानुभूति) रखते हैं. दोनों पार्टियां आप को साथ लेकर चलना भी चाहती हैं.
कांग्रेस चाहती थी कि शरद पवार राज्यसभा उप-सभापति चुनाव के लिए एनडीए कैंडिडेट के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा करें. लेकिन, शरद पवार ने ऐसा नहीं किया. शायद उनको भी मालूम था कि नंबर को देखते हुए ऐसा करने का कोई फायदा नहीं है.
आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ एक संगठित और मजबूत गठबंधन खड़ा करना चाहती है. लेकिन, वह गठबंधन का नेतृत्व किसी दूसरी पार्टी के हाथ में नहीं देना चाहती. दिक्कत यहीं हो रही है. कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि वह महागठबंधन का नेतृत्व कर सके और दूसरी पार्टी के हाथ में कमान देकर वह अपना नुकसान भी नहीं करना चाहती. जो भी हो. इन सबका फायदा सिर्फ एक पार्टी को मिल रहा है. बीजेपी को.
(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
.
Tags: BJP