#HumanStory: आसान नहीं है 'टीटी' की ज़िंदगी, कोई धमकी देता है तो कोई रिश्वत
यात्री टिकट लेकर जैसे ही ट्रेन में बैठता है, उसे 'टीटी' को सबकुछ कहने का हक मिल जाता है. ट्रेन में सफाई न होने से लेकर ...अधिक पढ़ें
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(ट्रेन में सफर करने वालों को अक्सर टीटीई यानी ट्रेवलिंग टिकट एग्जामिनर के पेशे को लेकर मुगालते रहते हैं. झारखंड के टीटीई राजू शर्मा की कहानी पेशे की मुश्किलों को परत-दर-परत खोलती है.)
झारखंड से बिहार जाने वाली गोमो-मुगलसराय एक्सप्रेस का एसी कोच. राजू शर्मा साइड लोवर में बैठे हुए सरसरी निगाह से चार्ट देख रहे हैं. ट्रेन का सिग्नल होते ही उतरकर स्लीपर कोच की तरफ बढ़ते हैं. हाथों में झूलता कोट पहनकर जैसे ही कोच में घुसते हैं, मानो खलबली मच जाती है. लोग चारों तरफ से घेर लेते हैं. सबको बर्थ चाहिए. सबके पास अपनी वजहें हैं. लोग गुस्सा करते हैं. रिश्वत देने की कोशिश करते हैं. कई बार धमकियां भी देते हैं. नौकरी खाने से लेकर ट्रेन से फेंक देने की.
राजू कहते हैं, एक टिकट लेकर पैसेंजर जो भी कहे, सुनना होता है. धमकी गंभीर लगे तो इतनाभर कर पाते हैं कि रेलवे पुलिस को कॉल कर दें. हालांकि पता नहीं होता है कि उनके आते तक हमारा क्या होगा.
टिकट चेक करते, चालान काटते और बर्थ अपग्रेड करते मुझे आठ साल हो चुके. रोज ट्रेनों की तीन स्लीपर कोच में यही काम करता हूं. काली पैंट और सफेद शर्ट पहनकर प्लेटफॉर्म पर रहता हूं, तब तक मैं भी किसी आम पैसेंजर जैसा ही होता हूं. कोट पहनते ही सब बदल जाता है. सारी सवारियों एकदम से घेर लेती हैं. सबको बर्थ चाहिए. सबके चेहरे पर जरूरत और लाचारी दिख रही है लेकिन हमें नियम के मुताबिक ही चलना होता है. पहले आरएसी क्लीयर करने के बाद ही हम वेटिंग को सीट दे सकते हैं. लेकिन ट्रैवलर ये सुनने को राजी नहीं होते हैं.
वे लगातार आसपास मंडराते रहते हैं और मौका मिलते ही रिश्वत भी ऑफर कर देते हैं. लोगों को लगता है कि पैसों से ईमान खरीदा जा सकता है.
पढ़ाई के बाद एसएससी के एग्जाम देकर टीटी बने तो पता नहीं था कि काम इतना मुश्किल होगा. हर बात के लिए मुसाफिर हमसे ही शिकायत करते हैं. साफ-सफाई, टिकट न मिलने और ट्रेन के लेट होने से लेकर खिड़की से पानी आने तक. आएदिन कोई ऐसा ट्रेवलर मिल जाता है जो हमारी नौकरी खाने की धमकी दे. या फिर ट्रेन से बाहर फेंक देने की. तब हम रेलवे पुलिस को फोन करके इंतजार-भर कर पाते हैं. कब, किस स्टेशन पर आपीएफ चढ़ेगी, कब एक्शन लेगी, ये पता नहीं होता. मेरे कई साथियों को सीरियस धमकियां झेलनी पड़ीं. मेरी रूट पर एक बार ट्रेन में डकैत चढ़ आए, छिनैती की और चले गए. हमने डॉक्टर बुलवाए और मुसाफिरों को संभाला.
ट्रेन की ड्यूटी और उससे जुड़ी मुश्किलात हालांकि यहीं तक सीमित नहीं. घर से दूरी भी एक बड़ी मुश्किल है. राजू या उनके साथियों को कई बार दिनों तक परिवार से दूर रहना पड़ता है. राजू बताते हैं, जिस ट्रेन में ड्यूटी लगी है, टीटी को उसी ट्रेन से वापस लौटना है फिर चाहे ट्रेन कितनी ही लेट हो. कई बार लगातार 40 घंटे की ड्यूटी लग जाती है. ट्रेन लेट रहती है और जनरल कोच से भी लोग चढ़ने-उतरने की कोशिश करते रहते हैं. ऐसे में लगातार दो-दो दिन-रात जानकर ड्यूटी करनी पड़ती है. छुट्टियों के भी यही हाल रहते हैं. कहने को तो परिवार के साथ रहते हैं लेकिन उनके साथ वक्त बिताने को तरस जाते हैं.
गोमो के रेलवे क्वार्टर में पत्नी-बच्चों के साथ रह रहे राजू ने हालांकि पेशे के साथ अपनी रिदम बना तो ली है लेकिन बच्चों को इस काम से नहीं जोड़ना चाहते. कहते हैं, मैं अपना काम पूरी ईमानदारी से करता हूं, बस बच्चों को इसमें नहीं चाहता. घर पर कैसी भी आफत आए, अगर हम ट्रेन में हैं तो वापस नहीं लौट सकते. पैसेंजरों को भी हमेशा शिकायत रहती है. ईमानदारी से काम करें तो भी लोग भड़के रहते हैं. आठ सालों में कभी कोई नहीं आया, जिसने हमें किसी बात पर थैंक्यू कहा हो.
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