करुणानिधि के निधन के साथ तमिलनाडु में व्यक्ति आधारित राजनीति का अंत
द्रविड़ आंदोलन के अग्रणी नेताओं में शामिल एम करुणानिधि के निधन से राज्य में व्यक्ति आधारित राजनीति के अंत के साफ संकेत ...अधिक पढ़ें
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द्रविड़ आंदोलन के अग्रणी नेताओं में शामिल एम करुणानिधि के निधन से राज्य में व्यक्ति आधारित राजनीति के अंत के साफ संकेत मिल रहे हैं. दरअसल राज्य की राजनीति में पिछले पांच दशकों में चिर प्रतिद्वंद्वी द्रमुक और अन्नाद्रमुक के करिश्माई नेताओं का वर्चस्व रहा है.
वो करुणानिधि और एमजी रामचंद्रन ही थे, जो शुरुआती दौर में लोगों के बीच प्रभावशाली रहे थे. बाद में एआईएडीएमके नेता एवं एमजीआर की उत्तराधिकारी एवं दिवंगत जे जयललिता प्रभावशाली रहीं.
दिलचस्प है कि वर्ष 2016 में जयललिता और करुणानिधि, दोनों ही चर्चा में कम रहने लगे. 75 दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद जयललिता की मृत्यु हो गई, जबकि डीएमके प्रमुख बीमारी से ग्रसित होकर अस्पताल में भर्ती हुए और कुछ दिनों बाद 7 अगस्त को उनका निधन हो गया.
करुणानिधि के गले में सांस लेने के लिए एक ट्यूब डाली गई थी, जिसके चलते उनकी आवाज़ चली गई. वो धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से दूर होते गए और मंगलवार शाम 94 वर्ष की आयु में उनका निधन होने तक वो सार्वजनिक रूप से नहीं के बराबर दिखे थे.
बीमारी की वजह से डीएमके प्रमुख गोपालपुरम स्थित अपने आवास से बाहर नहीं निकलते थे और उनके बेटे एमके स्टालिन ने पार्टी का रोज़ाना का कामकाज संभाल लिया तथा कार्यकारी प्रमुख का एक नया पदभार संभाला.
डीएमके संस्थापक सीएन अन्नादुरई के निधन के बाद 1969 में करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने थे.
वहीं, करुणानिधि से मतभेदों को लेकर डीएमके से बाहर किए जाने पर रामचंद्रन ने एआईएडीएमके का गठन किया और 1977 के आम चुनाव में अपनी पार्टी को डीएमके के खिलाफ भारी जीत दिलाई.
एमजीआर का 1987 में निधन होने तक राज्य की राजनीति में दो नेताओं का ही वर्चस्व था और करुणानिधि की नयी प्रतिद्वंद्वी के रूप में राजनीतिक फलक पर जयललिता के उभरने के साथ चार दशक तक राज्य में द्विध्रुवीय राजनीति की प्रवृत्ति देखने को मिली.
हालांकि एमजीआर के निधन के बाद एआईएडीएमके में विभाजन हो गया, लेकिन जयललिता ने उनकी विरासत आगे बढ़ाने के लिए दोनों धड़ों को एकजुट कर लिया.
तमिलनाडु की राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही करुणानिधि ने चुनावी मोर्चे पर कई बार प्रतिकूल परिणामों का सामना किया हो, लेकिन वो कभी नहीं झुके.
जयललिता और करुणानिधि के वर्चस्व वाले राजनीतिक परिदृश्य में विजयकांत तथा डीएमडीके ने चुनावों में कुछ प्रभावशाली प्रदर्शन किए. लेकिन वो अपना प्रभाव बढ़ा नहीं पाए और द्रविड़ राजनीति का द्विध्रुवीय स्वरूप बना रहा.
करुणानिधि और जयललिता के निधन के बाद राज्य की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है.
विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी नेता के लिए उनके करिश्मे और राजनीतिक प्रभाव की बराबरी कर पाना एक चुनौती होगी. इसलिए राज्य में शख्सियत आधारित राजनीति का पटाक्षेप हो सकता है.
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