गुलजार जन्मदिन विशेष: रात में घोले चांद की मिश्री, दिन के ग़म नमकीन लगते हैं...
रिश्तों से सूनी और तकलीफों से गुलजार जिंदगी को गुलजार ने कमउम्र से ही अल्फाज में पिरोना शुरू कर दिया.
- News18Hindi
- Last Updated :
कल्पनाओं से शब्दों का अलग ही संसार रच देने वाले गुलजार का आज जन्मदिन है. अविभाजित भारत के झेलम जिले में 18 अगस्त, 1934 को इनका जन्म हुआ. ये हिस्सा अब पाकिस्तान में है. कमउम्र से लेखन की शुरुआत करने वाले गुलजार का बचपन प्रेम के मामले में काफी अभावग्रस्त रहा. मां बचपन में चल बसीं. मां का साया उठ जाने का स्थायी दर्द उनके शब्दों में झलकता है. या फिर शायद बचपन को पूरी तरह न जी पाने के कारण उनका बचपन भी कविताओं को पूरता है. कई फिल्मफेयर और ग्रैमी अवार्ड हासिल कर चुके गुलजार के इस दिन पर पढ़ें उनकी चुनिंदा कविताएं.
1.
इक सन्नाटा भरा हुआ था,
एक गुब्बारे से कमरे में,
तेरे फोन की घंटी के बजने से पहले.
बासी सा माहौल ये सारा
थोड़ी देर को धड़का था
साँस हिली थी, नब्ज़ चली थी,
मायूसी की झिल्ली आँखों से उतरी कुछ लम्हों को–
फिर तेरी आवाज़ को, आखरी बार “खुदा हाफिज़”
कह के जाते देखा था!
इक सन्नाटा भरा हुआ है,
जिस्म के इस गुब्बारे में,
तेरी आखरी फोन के बाद–!!
2.
मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको,
तेरा चेहरा भी अब धुँधलाने लगा है अब तखय्युल में,
बदलने लग गया है अब यह सुब-हो-शाम का
मामूल,जिसमें,
तुझसे मिलने का ही इक मामूल शामिल था!
तेरे खत आते रहते थे तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी!
तेरी आवाज़ को कागज़ पे रख के,मैंने चाहा
था कि ‘पिन’ कर लूँ,
वो जैसे तितलिओं के पर लगा लेता है कोई
अपनी अलबम में–!
तेरा ‘बे’को दबा कर बात करना,
“वाव” पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम
जाता था–!
बहुत दिन हो गए देखा नहीं,ना खत मिला कोई–
बहुत दिन हो गए सच्ची !!
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं!
3.
मैं दीवार की इस जानिब हूँ .
इस जानिब तो धूप भी है हरियाली भी !
ओस भी गिरती है पत्तों पर,
आ जाये तो आलसी कोहरा,
शाख पे बैठा घंटों ऊँघता रहता है.
बारिश लम्बी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,
आँखों से गुम हो जाती है,
जो मौसम आता है,सारे रस देता है !
लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,
क्यों ऐसा सन्नाटा है
कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन–
दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है.
4.
ठंडी साँसे ना पालो सीने में
लम्बी सांसों में सांप रहते हैं
ऐसे ही एक सांस ने इक बार
डस लिया था हसी क्लियोपेत्रा को
मेरे होटों पे अपने लब रखकर
फूँक दो सारी साँसों को ‘बीबा’
मुझको आदत है ज़हर पीने की
5.
आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर
तुम उचककर शरीर होठों से चूम लेना
चूम लेना ये चांद का माथा
आज की रात देखा ना तुमने
कैसे झुक-झुक के कोहनियों के बल
चांद इतना करीब आया है
ये भी पढ़ें-
पहली रचना की प्रतियां फूंकी गईं और धमकी मिली- दोबारा कभी मत लिखना
महादेवी वर्मा : वो औरत जिसने दशकों पहले हिंदी कविता जगत यानी मर्दों के गढ़ में लगाई सेंध
जे. कृष्णमूर्ति पुण्यतिथि विशेष: “अपने भीतर देखो, तुम्ही सारा संसार हो”
कुमार गंधर्व के जन्मदिन पर विशेष : जीवन और राग की कुछ छवियां
बाबा प्रेम बहुत करते थे, बस जताना उन्हें नहीं आता था : कलापिनी कोमकली
.
Tags: Art and Culture, Gulzar