अंजलि तलरेजा
9 अगस्त शाम 4 बजे के आसपास की बात है. मैं रोज की तरह अपनी दुकान पर बैठा था कि वो मनहूस फोन आया, जिसने हमारी दुनिया उजाड़ दी. उस दिन सुबह भी रोज की तरह ही मैं काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा था कि बिटिया आकर मुझसे लिपट गई. यह उसका रोज का मामूल था. रोज सुबह वो ऐसे ही मुझे विदा करती, लेकिन उस दिन जब मैंने उसे गले लगाया तो पता नहीं था कि मैं आखिरी बार उसके नाजुक हाथों को अपने हाथों में ले रहा हूं, आखिरी बार उसके गाल थपथपा रहा हूं.
उस दिन दुकान पर व्यस्तता कुछ ज्यादा थी. दो बार फोन की घंटी बजने पर मैंने फोन उठाया तो कुछ सेकेंड तो यह समझने में लगे कि बात क्या है. ऐसा लगा, जैसे दूसरी ओर से आवाज मुझे तक पहुंच ही नहीं पा रही. कान सांय-सांय कर रहा हो. दिमाग की नसें सुन्न हो गई हों.
खबर आई थी कि अंजलि का एक्सीडेंट हो गया है. वो अस्पताल में है. मैं भागा-भागा पहुंचा, पूरे रास्ते खुद से बात करता, खुद को यकीन दिलाता कि मामूली चोटें होंगी, खरोंच होगी, हड्डी टूटी होगी, प्लास्टर बंधेगा, फिर खुल जाएगा. सब ठीक होगा. जब मन खुद को इतनी दिलासा दे रहा हो कि सब ठीक होगा तो अपने ही मन का कोई भीतरी कोना यह जान रहा होता है कि सब ठीक नहीं है.
अस्पताल पहुंचकर ही समझ आया कि सबकुछ ठीक नहीं था. अंजलि बेहोश थी, बाहरी खरोंचें, चोटें कुछ ज्यादा नहीं था. माथे पर हल्का सा खून बहा था, जो अब सूखकर पपड़ी बन चुका था. घुटने और कोहनी में कुछ मामूली चोटें थीं. मैं उससे कहता रहा कि देख, तुझे कुछ नहीं हुआ है, ज्यादा चोट भी नहीं लगी, हड्डी भी नहीं टूटी, अब आंखें खोल दे. लेकिन मेरी बच्ची ने आंखें नहीं खोलीं. डॉक्टर मुझे समझाते रहे, दिलासा देते रहे. लेकिन अंजलि तो कुछ बोल ही नहीं रही थी, मेरा मन कैसे शांत होता, जब तक मैं एक बार उसकी आवाज न सुन लेता. हरदा के उस छोटे से अस्पताल में अफरा-तफरी का माहौल था, कभी डॉक्टर आ रहे थे तो कभी नर्स. नर्स उसे इंजेक्शन लगा रही थी, नाड़ी देख रही थी और अपने कागज पर कलम से कुछ-कुछ लिख रही थी. फिर वो उसे एक बड़े से एसी वाले कमरे में ले गए. वहां एक बड़ी सी मशीन थी. डॉक्टर ने कहा कि उसका सिटी स्कैन होगा. मैं शीशे के इस पार से देखता रहा, सिटी स्कैन मशीन मेरी बच्ची को लील रही थी.
स्कैन की रिपोर्ट आई. डॉक्टर ने कहा, ब्रेन डेड हो चुका है, अब कोई उम्मीद नहीं.
अब जाकर कहानी कुछ-कुछ साफ हुई कि उस 9 अगस्त की शाम दरअसल हुआ क्या था. मेरी बेटी अपनी एक दोस्त के साथ एक्टिवा से कोचिंग जा रही थी, तभी इंदौर रोड पर रांग साइड से आ रही एक अंधाधुंध बस ने उसे टक्कर मार दी. गाड़ी उछली, दोनों सड़क के दूसरी ओर जा पड़ीं. सहेली को ज्यादा चोट नहीं आई. बाहरी चोट तो अंजलि को भी नहीं लगी थी, लेकिन उसके सिर में गहरा जख्म हुआ था.
हरदा में जब डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए तो मैं उसे इंदौर लेकर गया. अस्पताल ने मुझे रिपोर्ट-कागज थमा दिए और मेरी बच्ची का शरीर. हम रातोंरात इंदौर भागे. वहां एमवाय हॉस्पिटल में भी वही कहानी दोहराई गई. डॉक्टर वसंत बोले, कोई उम्मीद नहीं, घर ले जाइए. और मैं डॉक्टर का हाथ थामे अरदास करता रहा कि क्या पता, कोई चमत्कार हो जाए. डॉक्टर वसंत ने कहा कि चमत्कार शब्द सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन जीवन में होता नहीं.
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