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हमारे देश में दलित शब्द के इस्तेमाल से कौन डरता है?

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

दलित एक आंदोलनात्मक शब्द है. यह शब्द दलितों ने खुद को दिया है. इसमें सामूहिकता और विद्रोह दोनो ध्वनियां हैं. इस शब्द पर ...अधिक पढ़ें

    (Firstpost.com के लिए दिलीप सी मंडल)

    केंद्र सरकार चाहती है कि टीवी चैनल, सरकारी अधिकारी और अखबार दलित शब्द का इस्तेमाल न करें. सरकारी विभागों और टीवी चैनलों को इसके निर्देश दे दिए गए हैं और प्रेस काउंसिल भी इसके लिए एडवाइजरी जारी करने पर विचार कर रहा है. सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एडवाइजरी में कहा गया है, 'मीडिया शेड‌्यूल्ड कास्ट से जुड़े लोगों का जिक्र करते वक्त दलित शब्द के उपयोग से परहेज कर सकता है.

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    'ऐसा करना बॉम्बे हाईकोर्ट के निर्देशों का पालन करना होगा. इसके तहत मीडिया को अंग्रेजी में शेड्यूल्ड कास्ट और दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं में इसके उपयुक्त अनुवाद का इस्तेमाल करना चाहिए.' सरकार ने ये कदम हाईकोर्ट के दो फैसलों में दी गई सलाह के आधार पर उठाया है. कोर्ट ने इस शब्द के इस्तेमाल पर कोई अनिवार्य पाबंदी नहीं लगाई है. सरकार की इस बारे में सक्रियता से लगता है कि सरकार ही चाहती है कि दलित शब्द का इस्तेमाल बंद हो.

    क्या है दलित शब्द का इतिहास?

    दलित शब्द भारतीय भाषा शास्त्र और शब्दकोश में काफी देर से आया है. यह शब्द उन जाति समूहों के लिए इस्तेमाल होता है, जो अश्पृश्यता यानी छुआछूत के शिकार हैं या रहे हैं. भारतीय समाज व्यवस्था में चार वर्णों की व्यवस्था है. ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र. शास्त्रों में इनके काम भी निर्धारित हैं और इनके गुण भी बताए गए हैं.

    ऋग्वेद के पुरुष सुक्त से लेकर गीता के 18वें अध्याय और कई स्मृतियों में ये सब विस्तार से है. कई लोग ऐसी व्याख्या करते हैं कि ये वर्ण जन्म नहीं, कर्म के आधार पर हैं. लेकिन व्यवहार में हम सब जानते हैं कि ये विभाजन जन्म के आधार पर है और कर्म के आधार पर किसी व्यक्ति या समूह की जाति या वर्ण बदल गया हो, ऐसा कोई उदाहरण मौजूद नहीं है.


    इन चार वर्णों के अलावा समाज में एक और समूह मौजूद है, जो चतुर्वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं है. उन्हें अछूत या बाह्य या पंचम या चांडाल कहा जाता है. भारत में अभी जो दलित जातियां है, वे यही पुराने दौर की अछूत, बाह्य या पंचम जातियां हैं. अन्य वर्णों के लिए इन्हें छूना निषिद्ध था (सिविल राइट्स एक्ट के तहत अब ऐसा करना अपराध है), यहां तक कि इनकी छाया भी बाकी जातियों को अशुद्ध कर सकती थीं.

    सबसे गंदे काम इनके लिए निर्धारित थे. इन्हें कोई मानवाधिकार हासिल नहीं था और इन्हें मार देने पर भी मामूली सजा का ही प्रावधान शास्त्रों में है. संविधान में छुआछूत को निषिद्ध कर दिया गया है. लेकिन समाज में ये पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है.

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    भारतीय आधुनिकता के दार्शनिक महात्मा ज्योतिबा फुले इस समूह के लिए अतिशूद्र शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने इनके लिए डिप्रेस्ड क्लासेस शब्द इस्तेमाल किया. कांशीराम इन्हें 'ऑप्रेस्ड क्लासेस' कहते थे और उन्होंने 'ऑप्रेस्ड इंडियन' नाम की पत्रिका भी निकाली. दलित शब्द 'डिप्रेस्ड' या 'ऑप्रेस्ड' के आसपास का शब्द है.

    महात्मा गांधी ने इस समूह के लिए 'हरिजन' शब्द को प्रचलित करने की कोशिश की


    मोहनदास करमचंद गांधी ने इस समूह के लिए 'हरिजन' शब्द को प्रचलित करने की कोशिश की, जिसे इस समुदाय ने ही अपमानजनक बताकर खारिज कर दिया. अब इस शब्द का प्रयोग कोई नहीं करता. दलित शब्द को लोकप्रिय बनाने में महाराष्ट्र के 70 के दशक के दलित पैंथर आंदोलन का भी काफी योगदान है. यह आंदोलन अमेरिकी अश्वेत लोगों के ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रेरित था और इसने काफी कम समय में काफी प्रसिद्धि पाई और ढेर सारा विद्रोही साहित्य और गाने रचे. भारतीय संविधान की धारा 341 में इन समुदायों के लिए शेड्यूल्ड कास्ट शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका हिंदी अनुवाद अनुसूचित जातियां है.


    दलित शब्द में खास क्या है?

    दलित शब्द की सबसे बड़ी खासियत यह है यह शब्द दलितों ने खुद को दिया है. और यही बात इस जाति समूह के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बाकी शब्दों से दलित शब्द को अलग करती हैं. उन्हें अछूत किसी और ने कहा. उन्हें चांडाल किसी और ने कहा. उन्हें बाह्य या पंचम किसी और ने कहा. लेकिन दलितों को दलित खुद दलितों ने कहा.


    एक ही शब्द भिन्न स्थितियों में अलग अर्थ और असर पैदा करते हैं. 'चमार' शब्द का इस्तेमाल अगर कोई सवर्ण हिकारत या घृणा के साथ करे तो इसका अर्थ गाली है. वहीं, 'चमार' जाति का कोई व्यक्ति अपनी कार के शीशे पर गर्व से 'चमार' का छोरा लिखता है, तो इसका अर्थ बदल जाता है. खासकर पंजाब में पुत्त चमारा नूं लिखवाने का खूब चलन है. दलित शब्द का इस्तेमाल जब दलित खुद के लिए करते हैं तो यह अपमानजनक शब्द नहीं रह जाता.

    दलित शब्द की दूसरी खासियत यह है कि यह जाति व्यवस्था में उनकी स्थिति को दर्शाता है. दलन या दबाए जाने से बना शब्द दलित यह दर्शाता है कि किसी ने इनका दलन किया है. बाबा साहेब आंबेडकर 1918 के कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने पेपर कास्ट्स इंन इंडिया में लिखते हैं कि जाति एकवचन यानी सिंगुलर में इस्तेमाल नहीं हो सकता. या हमेशा बहुवचन में प्रयोग होने वाली अवधारणा है. कई जातियां हैं और वे एक दूसरे से ऊपर या नीचे हैं, तभी जातियों का अस्तित्व है. दलित शब्द इस मायने मे जाति व्यवस्था की हकीकत को बयान करता है. दलित शब्द बायनरी में यानी द्वेत में है. कोई दलित है तो कोई सवर्ण भी है. जैसे कि कोई नीच है तो कोई ऊंच भी है.

    दलित शब्द में गत्यात्मकता है. यानी यह एक डायनामिक अवधारणा है, जहां से आगे बढ़ना शब्द की व्याप्ति में ही है. कोई जब खुद को दलित कहता है तो इसमें उसके अपने उत्पीड़ित होने की स्वीकृति के साथ इस स्थिति से मुक्ति की चाहत भी दर्ज है.


    दलित होना एक आंदोलनात्मक स्थिति है. जबकि अनुसूचित जाति एक प्रशासनिक शब्द है, जिससे सिर्फ यह पता चलता है कि कौन सी जातियां एक खास अनुसूची में दर्ज हैं.

    इस साल 2 अप्रैल के भारत बंद के बाद दलित शब्द ऐसी पहचान बन चुका है, जिसे अब कोई नकार नहीं सकता. पिछले दो दशकों में इतना बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन और कोई समूह नहीं कर पाया है. यह शब्द नीच होने का एहसास नहीं कराता. जैसा कि लेखक सिद्धार्थ रामू कहते हैं, 'दलित शब्द दलितों की समानता की भावना, सामूहिकता की भावना, अन्याय के प्रतिरोध की चेतना, क्रांतिकारी चिंतन, ब्राह्मणवाद को चुनौती देने की भावना का प्रतीक बन चुका है. यह उनकी सामूहिक अस्मिता को सामने लाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि दलित चेतना आंबेडकरवादी चेतना का प्रतीक बन चुकी है.'

    भारत बंद के दौरान प्रदर्शन करते लोग



    वस्तुस्थिति यह है कि दलित आंदोलन को लेकर सरकार और सामाजिक सत्ता असहज है. यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी शक्ल ले चुका है. हैदराबाद में रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या हो, या ऊना में मरी गाय की चमड़ी उतार रहे दलितों पर अत्याचार या राजस्थान में दलित लड़की डेल्टा मेघवाल की हत्या या फिर सहारनपुर में दलित विरोधी हिंसा, इन सबकी अब राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया होती है. यह पूरे भारतीय समाज के लोकतांत्रिक और आधुनिक बनने के क्रम में हो रहा है.


    दलितों को दलित की जगह कुछ और कहने भर से यह आंदोलन खत्म नहीं हो जाएगा. आवश्यक है कि न सिर्फ सरकार, बल्कि पूरा समाज स्वीकार करे कि दलितों के साथ अत्याचार और अन्याय हुआ है और विशेष अवसर के सिद्धांत के ईमानदारी से पालन के जरिए ही इनके असंतोष को खत्म किया जा सकता है. पूरा समाज जब स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लोकतांत्रिक व्यवहार पर चलने लगेगा, तभी समाज में एकता आएगी. वरना नाम में क्या रखा है? दलित बोलिए या वंचित.

    (लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं)